Monday, June 25, 2012



June 26th, 2012
राग टोड़ी

दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई ।
सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥

कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई ।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥

कबहुँ दीन, मतिहीन रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी ।
कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥

कबहुँ देव ! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै ।
संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥

संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज-समुदाई ।
तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिँ जाई ॥

* जय सियाराम *

Ashish Pandey  
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई ।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥
 
नयन मलिन परनारि निरखि,मन मलिन बिषय सँग लागे ।
हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥

परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये ।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥

तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै ।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥