Sunday, January 3, 2016

जो पै जानकिनाथ .....



जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच ।
स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच ॥ १ ॥

धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान ।
करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान ॥ २ ॥

बेद बिदित साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि ।
राम-प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि ॥ ३ ॥

नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति ।
तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति ॥ ४ ॥
..
:: अरे नीच ! यदि श्रीजानकीनाथ रामचन्द्रजीसे तेरा प्रेम और नाता नहीं है, तो तेरे स्वार्थ और परमार्थ कैसे सिद्ध होंगे? इस अवस्थामें तो कुटिल कलियुगने तुझको बीचमें ही ठग लिया (जिससे लोक-परलोक दोनों ही बिगड़ गये) ॥ १ ॥

(भगवानके प्रेमसे विहीन लोगोंके लिये) वर्ण और आश्रमके धर्म केवल पोथियों और पुराणोंमें ही लिखे पाये जाते हैं । उनके अनुसार कर्तव्य कोई नहीं करता, ऐसे कर्तव्यहीन कोरे भेष वैसे ही हैं जैसे बिना प्राणोंके शरीर हों । (उनसे कोई लाभ नहीं) ॥ २ ॥

सुनते हैं कि वेदोंमें जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध (यज्ञ आदि) साधन हैं, वे सब अर्थ, काम और मोक्ष और चारोंको देने वाले हैं; किन्तु बिना श्रीराम-प्रेमके उन सबका जानना-मानना वैसा ही है जैसे बिना पानीके तालाब और नदियाँ । सारांश यह कि भगवत्-प्रेम-विहीन सभी क्रियाएँ व्यर्थ हैं ॥ ३ ॥

मुक्तिके अनेक मार्ग हैं और भाँति-भाँतिके साधन हैं, किन्तु हे तुलसी ! तू तो मेरे कहनेसे दिन-रात केवल राम-नामका ही जप किया कर (तेरा तो इसीसे कल्याण हो जाएगा) ॥ ४ ॥

Thursday, October 3, 2013

जानकीनाथ, रघुनाथ .. (राग रामकली, विनय-पत्रिका पद संo ५१)



09.07.2013

जानकीनाथ, रघुनाथ, रागादि-ताम-तरणि, तारुण्यतनु, तेजधामं ।
सच्चिदानंद, आनंदकंदाकरं, विश्व-विश्राम, रामाभिरामं ॥ १ ॥

नीलनव-वारिधर-सुभग-शुभकान्ति, कटि पीत कौशेय वर वसनधारी ।
रत्न-हाटक-जटित-मुकुट-मंडित-मौली, भानु-शत-सदृश उद्योतकारी ॥ २ ॥

श्रवण कुंडल, भाल तिलक, भ्रूरुचिर अति, अरुण अम्भोज लोचन विशालं ।
वक्र-अवलोक, त्रैलोक-शोकापहं, मार-रिपु-ह्रदय-मानस-मरालं ॥ ३ ॥

नासिका चारु सुकपोल, द्विज वज्रदुति, अधर बिंबोपमा, मधुरहासं ।
कंठ दर, चिबुक वर, वचन गंभीरतर, सत्य-संकल्प, सुरत्रास-नासं ॥ ४ ॥

सुमन सुविचित्र नव तुलसिकादल-युतं मृदुल वनमाल उर भ्राजमानं ।
भ्रमत आमोदवश मत्त मधुकर-निकर, मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं ॥ ५ ॥

सुभग श्रीवत्स, केयूर, कंकण, हार, किंकिणी-रटनि कटि-तट रसालं ।
वाम दिसि जनकजासीन-सिंहासनं कनक-मृदु वल्लिवत तरु तमालं ॥ ६ ॥

अजानु भुजदंड कोदंड-मंडित वाम बाहु, दक्षिण पाणि बाणमेकं ।
अखिल मुनि-निकर, सुर, सिद्ध, गन्धर्व वर नमत नर नाग अवनिप अनेकं ॥ ७ ॥

अनघ, अविछिन्न, सर्वज्ञ, सर्वेश, खलु सर्वतोभद्र-दाताsसमाकं ।
प्रणतजन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण नौमि श्रीराम सौमित्रिसाकं ॥ ८ ॥

युगल पदपद्म सुखसद्म पद्मालयं, चिह्न कुलिशादि शोभाति भारी ।
हनुमत-हृदि विमल कृत परममंदिर, सदा दासतुलसी-शरण शोकहारी ॥ ९ ॥
(राग रामकली, विनय-पत्रिका पद संo ५१)

हौं रघुबंसमनि को दूत । .. (राग केदारा- गीतावली सुन्दरकाण्ड)



06.07.2013

हौं रघुबंसमनि को दूत ।
मातु मानु प्रतीति जानकि ! जानि मारुतपूत ॥ १ ॥

मैं सुनी बातैं असैली, जे कही निसिचर नीच ।
क्यों न मारै गाल, बैठो काल-डाढ़नि बीच ॥ २ ॥

निदरि अरि, रघुबीर-बल लै जाउँ जौ हठि आज ।
डरौं आयसु-भंगतें, अरु बिगरिहै सुरकाज ॥ ३ ॥

बाँधि बारिधि, साधि रिपु, दिन चारिमें दोउ बीर ।
मिलहिंगे कपि-भालु-दल सँग, जननि ! उर धरु धीर ॥ ४ ॥

चित्रकूट-कथा, कुसल कहि सीस नायो कीस ।
सुह्रद-सेवक नाथको लखि दई अचल असीस ॥ ५ ॥

भये सीतल स्त्रवन-तन-मन सुने बचन-पियूष ।
दास तुलसी रही नयननि दरसहीकी भूख ॥ ६ ॥


:: माता जानकी ! विश्वास करो, मैं रघुवंशमणि भगवन राम का दूत हूँ; मुझे साक्षात पवनपुत्र समझो ॥ १ ॥
नीच निशाचर रावनने जो अंडबंड बातें कहीं हैं, वे मैंने सब सुन ली हैं. वह कालकी दाढोंके बीच पड़ा हुआ है, फिर बैठा-बैठा इस प्रकार गाल क्यों न बजावेगा ॥ २ ॥
मैं रघुनाथजीकी कृपासे आज ही शत्रुका तिरस्कार कर हठपूर्वक तुम्हे ले जा सकता हूँ; किन्तु स्वामी की आज्ञा भंग करने से डरता हूँ और इससे देवताओं का काम भी बिगड़ता है ॥ ३ ॥
मात: ! तुम हृदयमें धैर्य धारण करो; दोनों भाई चार दिन पीछे ही समुद्र पर पुल बाँध, शत्रु को परास्तकर रीछ और वानरों की सेना के सहित तुमसे मिलेंगे ॥ ४ ॥
फिर हनुमानजी ने चित्रकूट की कथा और रघुनाथजी की कुशल कह उन्हें सर नवाया. इससे उन्हें स्वामी का प्रिय दास समझकर सीताजी ने अटल आशीर्वाद दिया ॥ ५ ॥
हनुमान जी के वचनामृत सुनकर सीताजी के कान, शरीर और ह्रदय तो शीतल हो गए; अब नेत्रोंको केवल भगवानके दर्शानोंकी भूख रह गयी है ॥ ६ ॥  

 

यह बिनती रघुबीर गुसाईं .. (राग धनाश्री, विनय-पत्रिका पद सं0- १०३)



02.07.2013

यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥

कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥ ३ ॥

या जगमेँ जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥ ४ ॥


::  हे रघुनाथ जी ! हे नाथ ! मेरी विनती है कि इस जीवको दुसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खता को आप हर लीजिये ॥ १ ॥
हे राम ! मैं शुभगति, सद्बुद्धि, धन-संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता. बस, मेरा तो आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक-से-अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥ २ ॥
मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस-जिस योनि में ले जाएँ, उस-उस योनिमें ही हे नाथ ! जैसे कछुआ अपने अण्डों को नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभर के लिए भी अपनी कृपा न छोड़ना ॥ ३ ॥
हे नाथ ! इस संसारमें जहां तक इस शरीरका (स्त्री-पुत्र-परिवारादिसे) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही स्थान पर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ॥ ४ ॥

!! श्रीरामदूताय नमो नमः !! 


हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै .. (राग बिलावल, विनय-पत्रिका पद संo- ११९)



29.06.2013

हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै ।
देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥

भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई ।
कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥

जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥

जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै ।
चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥

ह्रषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे ।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥


::  हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, नित्य पवित्र और सुखरूप माननेका) भ्रम किस उपायसे दूर होगा? देखता है, सुनता है, सोचता है, फिर भी मेरा यह मन अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता. (और संसारको सत्य सुखरूप मानकर बार-बार विषयों में फंसता है) ॥ १ ॥
भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी साधन इस मनको शांत करनेके उपाय हैं, परन्तु मेरे हृदयसे तो यही वासना कभी नहीं जाती कि 'कोई मुझे अच्छा कहे' अथवा 'मुझे कुछ दे' (ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के साधकों के मन में भी प्राय: बड़ाई और धन-मान पाने की वासना बनी ही रहती है) ॥ २ ॥
जिस (संसाररुपी) रात में सब जीव सोते हैं उसमें केवल आपका कृपापात्र जन जागता है. किन्तु मुझे तो अपनी करनी को बिलकुल ही विपरीत देखकर बड़ा भारी भय लग रहा है ॥ ३ ॥
यद्यपि दैववश- प्रारब्धवश मनुष्यके सारे मनोरथ नष्ट हो जाते हैं, सांसारिक सुख उसके भाग्यमें (पूर्व सुकृति के अभाव से) लिखे ही नहीं गए. तथापि वह सुखोंकी इच्छामात्र कर वैसे ही दुःख पाता है जैसे कोई बिना हाथ का चित्रकार (केवल मन:कल्पित) चित्रोंसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है और भग्नमनोरथ होकर दुःख पाता है (उसी प्रकार मैं भी भजनसाधनरूप सुकृत किये बिना ही यों ही सुख चाहता हूँ)॥ ४ ॥
आपका हृषिकेश (इन्द्रियों के स्वामी) नाम सुनकर मैं आपकी बलैया लेता हूँ. मेरे मनमें आपका अत्यंत भरोसा है. तुलसीदास इन्द्रियजन्य दुःख आपको अवश्य नष्ट करना ही पड़ेगा ॥ ५ ॥ 


तोसो हौं फिरि फिरि हित .. (राग बिलावल, विनय-पत्रिका पद संo १३३)





25.06.2013

तोसो हौं फिरि फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत ।
सुनि मन, गुनि, समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥

छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत ।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥

बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत ।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥

बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत ।
योंही जिय जानि, मानि सठ ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥

पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत ।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥


:: अरे जीव ! मैं तुझसे बार-बार हितकारी, प्रिय, पवित्र और सत्य वचन कहता हूँ, इन्हें सुनकर, मनमें विचारकर और समझकर भी तू सुगम और सुन्दर रास्ता क्यों नहीं पकड़ता ? अर्थात श्रीराम की शरण क्यों नहीं हो जाता ? ॥ १ ॥
छोटा-बड़ा, खोटा-खरा, जो यहाँ संसार में रहता है, उनमें बता, ऐसा कौन है, जो अपना भला न चाहता हो ? ॥ २ ॥
ब्रम्हा से लेकर छोटे-छोटे कीड़े तक सुख से सुखी होते हैं और दुःख से जलते हैं, पशुपालक ग्वाले की तरह परमात्मा जीवरूपी पशुओं को (अज्ञानसे) बांधता, (ज्ञानसे) खोलता और उन्हें (कर्मोंमें) जोतता है ॥३ ॥
विषयों के सुखों को देख. वे तो सर के बोझे को कंधे पर रखने के सामान हैं. अर्थात विषय-सुख में सुख है ही नहीं, इस तरह मन में समझकर मान जा. अरे मूर्ख ! क्यों कष्ट सह रहा है ? ॥ ४ ॥
तनिक विचार तो कर, मृगतृष्णा के जल को मथकर किसने घी पाया है ? अर्थात असत संसार के काल्पनिक पदार्थों में सच्चा सुख कैसे मिल सकता है ? हे तुलसी ! तू तो उसी प्रभुकी शरण में जा, जिससे सब कुछ प्राप्त होता है ॥ ५ ॥  

 

ताते हौं बार बार देव ! .. (राग बिहाग, विनय-पत्रिका पद संo १३४)





22.06.2013



ताते हौं बार बार देव ! द्वार परि पुकार करत ।
आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥

लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत ।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥

कौसिक, मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत ।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥

केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत ।
सनमुख तोहिं होत नाथ ! कुतरु सुफरु फरत ॥ ४ ॥

बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत ।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥

सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत ।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥

जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत ।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥ 


:: हे नाथ ! मैं तुम्हारे इसी स्वभाव को जानकर द्वार पर पड़ा हुआ बार-बार पुकार रहा हूँ कि हे प्रभो ! तुम दुःख, नम्रता और दीनता सुनाते ही सारे संकट हर लेते हो ॥ १ ॥ 
जब रावण के भय के मारे इंद्र, कुबेर आदि लोकपाल डरकर शोक से व्याकुल हो गए थे, तब हे कृपालु ! तुमने क्या सुनकर संकोच से नर शरीर धारण किया था? ॥ २ ॥ 
यह समझ में नहीं आता कि जो विश्वामित्र, अहिल्या और जनक चिंता की अग्नि में जले जा रहे थे, वे किस साधन से शीतल हो गए ? ॥ ३ ॥ 
गुह निषाद, पक्षी (जटायु, शबरी आदि स्वाभाव से ही तुम्हारे चरण-कमलों में रत नहीं थे) किन्तु हे नाथ ! तुम्हारे सामने आते ही (इन) बुरे-बुरे वृक्षों में भी अच्छे-अच्छे फल फल गए ! भाव यह कि निषाद, शबरी आदि पापी भी तुम्हारी शरणागति से तर गए ॥ ४ ॥ 
अपने-अपने भाई के साथ शत्रुता करने से सुग्रीव और विभीषण बड़े भारी दुःख से गले जाते थे. हे राम जी ! तुमने किस सेवा से रीझकर उन्हें भरत जी के समान मान लिया ॥ ५ ॥ 
हनुमान जी तुम्हारी सेवा करते-करते तुम्हारे ही समान हो गए । हे राम जी ! उन (हनुमान जी) का नाम लेते ही तुम सब पर भली-भाँति प्रसन्न हो जाते हो ॥ ६ ॥ 
(यह सब क्यों हुआ ? दुःख, नम्रता और दीनता के कारण ही तुमने ऐसा किया) इसलिए हे नाथ ! तुम्हारी (रीझने की) रीति न जानने के कारण ही जगत अन्यान्य साधनों में पच-पचकर मर रहा है । तुम दुखियों, नम्रों और दीनों पर प्रसन्न होते हो यह जानकर जो तुम्हारी शरण हो जाय वह तो तर ही जाता है, क्योंकि कपट छोड़कर तुम्हारी शरण में जानेसे तुलसी- जैसे जीव भी तो संसार-सागर से तर गए ॥ ७ ॥