Friday, September 21, 2012

ताहिं तें आयो सरन सबेरें ।


राग असवारी

ताहिं तें आयो सरन सबेरें ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें

लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें

दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ?

बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाईहौं हेरें

यह जिय जानी रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें
तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बने निबेरें



:: हे नाथ ! (केवल तुम्हारा ही भरोसा है) इसी कारण से मै पहले से ही तुम्हारी शरण मे आ गया हूँ ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि साधन तो मेरे पास स्वप्न में भी नहीं हैं (जिनके बल से मै संसार-सागर से पार हो जाता) मुझे लोभ, अज्ञान, घमंड, काम और क्रोधरूपी शत्रु ही रात-दिन घेरे रहते हैं, ये क्षणभर भी मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते इन सबके साथ मिलकर यह मन भी कुमार्गी हो गया है अब यह तुम्हारे ही फेरने से फिरेगा संतजन और वेड पुकार-पुकारकर कहते हैं कि संसार के यह सब विषय पापों के घर हैं और शोक प्रद हैं, यह जानते हुये भी मेरा उन विषयों में ही जो इतना अनुराग है सो हे हरि ! यह तुम्हारी ही प्रेरणा से तो नहीं है ? (नहीं तो मै जान-बूझकर ऐसा क्यों करता?) (जो कुछ भी हो, तुम चाहो तो) विष को अमृत एवं अग्नि को बरफ बना सकते हो और बिना ही जहाज़ों के संसार-सागर से पार कर सकते हों तुम-सरीखा कृपालु और परम हितकारी स्वामी ढूँढने पर भी कहीं नहीं मिलेगा (ऐसे स्वामी को पाकर भी मैंने अपनी काम नहीं बनाया तो फिर मेरे सामान मूर्ख और कौन होगा ?) इसी बात को ह्रदय में जानकार, हे रघुनाथ जी ! मै सब छोड़-छाड़कर तुम्हारे भरोसे आ पड़ा हूँ तुलसिदास का यह विपत्तिरूपी जाल तुम्हारे काटे कटेगा !  

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो ..






राग सोरठ

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो
ज्यों छल छाँड़ी सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो १ 

ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके
त्यों न साधू, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ 

ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी
राम-प्रसाद-माल जूठन लगी त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ 

चन्दन-चंद-बदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो
त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ४ 

ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५  

चंचल चरन लोभ लगी लोलुप द्वार-द्वार जग बागे
 राम-सीय-आस्त्रमनि चलत त्यों भये न स्त्रमित अभागे ॥ ६

सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है
 है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है


जय श्रीसीताराम



:: मेरा मन आपसे ऐसा  कभी नहीं लगा, जैसा कि वह कपट छोड़कर, स्वभावसे  ही  निरंतर विषयों में लगा रहता है जैसे मैं पराई स्त्रियोंको ताकता फिरता हूँ, घर-घर के पापभरे प्रपंच सुनता हूँ, वैसे न तो कभी साधुओंके दर्शन करता हूँ, और न गंगाजीके निर्मल तरंगो के सामान श्रीरघुनाथजीकी गुणावली ही सुनता हूँ जैसे नाक अच्छी-अच्छी सुगंधके रसके अधीन रहती है, और जीभ छ: रसोंसे प्रेम करती है, वैसे यह नाक भगवान् पर चढ़ी हुई मालाके लिए और जीभ भगवत-प्रसादके लिए कभी ललक-ललककर नहीं ललचाती जैसे यह शारीर चन्दन, चन्द्रवदनी युवती, सुन्दर गहने और (मुलायम) कपड़ोंको स्पर्श करना चाहता है, वैसे श्री रघुनाथजीके चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए यह कभी नहीं तरसता जैसे मैंने शारीर, वचन और हृदयसे, बुरे-बुरे देवों और दुष्ट स्वामियोंकी सब प्रकारसे सेवा की, वैसे उन रघुनाथजीकी सेवा कभी नहीं की, जो (तनिक सेवासे) अपनेको खूब ही कृतज्ञ मानने लगते हैं और एक बार प्रणाम करते ही (अपार करुना के कारण) सकुचा जाते हैं जैसे इन चंचल चरणोंने लोभवश, लालची बनकर द्वार-द्वार ठोकरें खायी हैं, वैसे ये अभागे श्री सीतारामजीके (पुण्य) आश्रमों में जाकर कभी स्वप्न में भी नहीं थके. (स्वप्न में भी कभी भगवानके पुण्य आश्रमोंमें जाने का कष्ट नहीं उठाया)॥  हे प्रभो! (इस प्रकार) मेरे सभी अंग आपके चरणोंसे विमुख हैं. केवल इस मुखसे आपके नामकी ओट ले रखी है (और यह इसलिए कि) तुलसीको एक येही निश्चय है कि आपकी मूर्ती कृपामयी हैं. (आप कृपासागर होनेके कारण, नामके प्रभावसे मुझे अवश्य अपना लेंगे) 7    

जय जय श्रीसीताराम