Wednesday, December 28, 2011

जागु,जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी ..



जागु,जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी । १
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनि ॥

सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे ।
बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २

कहैँ बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिँ रे ।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिँ रे ॥ ३

तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे ।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४

Monday, December 26, 2011

जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव ..


राग विभास


जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे ।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु, दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १

मोहमय कुहु-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रुप सुपन जू परे ।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २

भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान
काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे ।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३

श्रवण सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे ।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४

Tuesday, December 20, 2011

सेइये सुसाहिब राम सो


Dec.20. 2011

सेइये सुसाहिब राम सो ।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १

सारद सेस साधु महिमा कहैँ, गुनगन-गायक साम सो ।
सुमिरि सप्रेम नाम जासोँ रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २

गमन बिदेस न लेस कलेसको, सकुचत सकृत प्रनाम सो ।
साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३

टहल सहल जन महल-महल, जागत चारो जुग जाम सो ।
देखत दोष न खीझत, रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४

जाके भजे तिलोक-तिलक भये, त्रिजग जोनि तनु तामसो ।
तुलसी ऐसे प्रभुहिँ भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५

काजु कहा नरतनु धरि सार्-यो


Dec.17, 2011


काजु कहा नरतनु धरि सार्-यो ।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार्-यो ॥ १

द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार्-यो ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिँ काटि निवार्-यो ॥ २

संसय-सिंधु नाम बोहि भजि निज आतमा न तार्-यो ।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिँ हार्-यो ॥ ३

देखि आनकी सहज संपदा द्वेष-अनल मन जार्-यो ।
सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार्-यो ॥ ४

प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैँ मन क्रम बिसार्-यो ।
तुलसीदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार्-यो ॥ ५

Wednesday, December 14, 2011

'बाप! आपने करत. . .


'बाप! आपने करत. . .'
by Chandrasekhar Nair on Tuesday, 6 September 2011 at 09:14


बाप! आपने करत मेरी घनि घटि गई ।
लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि
रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १

रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई ।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २

पतित-पावन हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको आधार, दीनबंधु, दई ।
इन्हमेँ न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३

स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितेँ अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक -रंग-रई ।
बड़े कुसमाज राज ! आजुलौँ जो पाये दिन,
महाराज ! केहू भाँति नाम-लोट लई ॥ ४

राम ! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दूसरि न बिधि निरमई ।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५

'पाहि, पाहि राम ! ..'


'पाहि, पाहि राम ! ..'
by Chandrasekhar Nair on Thursday, 15 September 2011 at 08:43


पाहि, पाहि राम ! पाहि रामभद्र, रामचंद्र !

सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौँ सरन ।

दीनबन्धु ! दीनता-दरिद्र-दाह दोष दुख
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १


जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन ।

तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आस्त्रम, बरन ॥ २


बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन ।

ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३


सिला, गुह गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन ।

पील उद्धरन ! सीलसिँधु ! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४

' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '


' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 17 September 2011 at 09:39


काहे न रसना, रामहि गावहिँ ?

निसदिन पर-अपवाद वृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १


नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।

ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २


काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि ।

तिनहिँ हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३


जातरुप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि ।

सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४


बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहिँ ।

तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५

जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने





जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने
By Chandrasekhar Nair · Thursday, 6 October 2011



जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने।

दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥१



अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।

जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥ २



तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।

भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥ ३



जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिध दुख ते निर्बहे।

भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥ ४



जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।

ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरि॥ ५



बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।

जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिँ भव नाथ सो समरामहे॥ ६



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनि पतिनी तरी।

नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥ ७



ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।

पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥ ८



अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।

षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥ ९



फल जुगत बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।

पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥ १०



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीँ॥ ११



करुनातयन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीँ।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीँ॥१२

कलि नाम कामतरु रामको ।




कलि नाम कामतरु रामको ।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १


नाम लेत दाहिनो होत मन, बाम बिधाता बामको ।
कहत मुनीस महेत महातम, उलटे सूधे नामको ॥ २


भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको ।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३

कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,



कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सोँ, बलि दीनता ।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥

दुहु ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समचीनता ।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीति की प्रबीनता ॥

एहि दरबार है गरब तेँ सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता ।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥

यहाँकी सयानप, अनायप सहस सम,
सूधौ सतधाय कहे मिटति मलीनता ।
गीध-सिला सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साईँ सो सनेह-हित-हीनता ॥

सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता ।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥

Tuesday, December 6, 2011

कहाँ जाउँ, कासोँ कहौँ, कौन सुनै दीनकी




(राग बिलावल)


कहाँ जाउँ, कासोँ कहौँ, कौन सुनै दीनकी ।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १

जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैँ ।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैँ ॥ २

गजराज-काज खगराज तजि धायो को ।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३

मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके ।
किये बहुमोल तैँ करैया गीध-श्राधके ॥ ४

तुलसीकी तेरे ही बनाये, बलि, बनैगी ।
प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५

Saturday, December 3, 2011

रघुपति बिपति-दवन



रघुपति बिपति-दवन ।

परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पवन ॥ 1


कूर, कुटिल, कुलहीन, दीन, अति मलिन जवन ।

सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ 2


गज-पिँगला-अजामिल-से खल गनै धौँ कवन ।

तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ 3



! जय श्री सीताराम !