Friday, September 21, 2012

ताहिं तें आयो सरन सबेरें ।


राग असवारी

ताहिं तें आयो सरन सबेरें ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें

लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें

दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ?

बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाईहौं हेरें

यह जिय जानी रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें
तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बने निबेरें



:: हे नाथ ! (केवल तुम्हारा ही भरोसा है) इसी कारण से मै पहले से ही तुम्हारी शरण मे आ गया हूँ ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि साधन तो मेरे पास स्वप्न में भी नहीं हैं (जिनके बल से मै संसार-सागर से पार हो जाता) मुझे लोभ, अज्ञान, घमंड, काम और क्रोधरूपी शत्रु ही रात-दिन घेरे रहते हैं, ये क्षणभर भी मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते इन सबके साथ मिलकर यह मन भी कुमार्गी हो गया है अब यह तुम्हारे ही फेरने से फिरेगा संतजन और वेड पुकार-पुकारकर कहते हैं कि संसार के यह सब विषय पापों के घर हैं और शोक प्रद हैं, यह जानते हुये भी मेरा उन विषयों में ही जो इतना अनुराग है सो हे हरि ! यह तुम्हारी ही प्रेरणा से तो नहीं है ? (नहीं तो मै जान-बूझकर ऐसा क्यों करता?) (जो कुछ भी हो, तुम चाहो तो) विष को अमृत एवं अग्नि को बरफ बना सकते हो और बिना ही जहाज़ों के संसार-सागर से पार कर सकते हों तुम-सरीखा कृपालु और परम हितकारी स्वामी ढूँढने पर भी कहीं नहीं मिलेगा (ऐसे स्वामी को पाकर भी मैंने अपनी काम नहीं बनाया तो फिर मेरे सामान मूर्ख और कौन होगा ?) इसी बात को ह्रदय में जानकार, हे रघुनाथ जी ! मै सब छोड़-छाड़कर तुम्हारे भरोसे आ पड़ा हूँ तुलसिदास का यह विपत्तिरूपी जाल तुम्हारे काटे कटेगा !  

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो ..






राग सोरठ

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो
ज्यों छल छाँड़ी सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो १ 

ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके
त्यों न साधू, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ 

ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी
राम-प्रसाद-माल जूठन लगी त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ 

चन्दन-चंद-बदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो
त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ४ 

ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५  

चंचल चरन लोभ लगी लोलुप द्वार-द्वार जग बागे
 राम-सीय-आस्त्रमनि चलत त्यों भये न स्त्रमित अभागे ॥ ६

सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है
 है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है


जय श्रीसीताराम



:: मेरा मन आपसे ऐसा  कभी नहीं लगा, जैसा कि वह कपट छोड़कर, स्वभावसे  ही  निरंतर विषयों में लगा रहता है जैसे मैं पराई स्त्रियोंको ताकता फिरता हूँ, घर-घर के पापभरे प्रपंच सुनता हूँ, वैसे न तो कभी साधुओंके दर्शन करता हूँ, और न गंगाजीके निर्मल तरंगो के सामान श्रीरघुनाथजीकी गुणावली ही सुनता हूँ जैसे नाक अच्छी-अच्छी सुगंधके रसके अधीन रहती है, और जीभ छ: रसोंसे प्रेम करती है, वैसे यह नाक भगवान् पर चढ़ी हुई मालाके लिए और जीभ भगवत-प्रसादके लिए कभी ललक-ललककर नहीं ललचाती जैसे यह शारीर चन्दन, चन्द्रवदनी युवती, सुन्दर गहने और (मुलायम) कपड़ोंको स्पर्श करना चाहता है, वैसे श्री रघुनाथजीके चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए यह कभी नहीं तरसता जैसे मैंने शारीर, वचन और हृदयसे, बुरे-बुरे देवों और दुष्ट स्वामियोंकी सब प्रकारसे सेवा की, वैसे उन रघुनाथजीकी सेवा कभी नहीं की, जो (तनिक सेवासे) अपनेको खूब ही कृतज्ञ मानने लगते हैं और एक बार प्रणाम करते ही (अपार करुना के कारण) सकुचा जाते हैं जैसे इन चंचल चरणोंने लोभवश, लालची बनकर द्वार-द्वार ठोकरें खायी हैं, वैसे ये अभागे श्री सीतारामजीके (पुण्य) आश्रमों में जाकर कभी स्वप्न में भी नहीं थके. (स्वप्न में भी कभी भगवानके पुण्य आश्रमोंमें जाने का कष्ट नहीं उठाया)॥  हे प्रभो! (इस प्रकार) मेरे सभी अंग आपके चरणोंसे विमुख हैं. केवल इस मुखसे आपके नामकी ओट ले रखी है (और यह इसलिए कि) तुलसीको एक येही निश्चय है कि आपकी मूर्ती कृपामयी हैं. (आप कृपासागर होनेके कारण, नामके प्रभावसे मुझे अवश्य अपना लेंगे) 7    

जय जय श्रीसीताराम 

Monday, June 25, 2012



June 26th, 2012
राग टोड़ी

दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई ।
सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥

कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई ।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥

कबहुँ दीन, मतिहीन रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी ।
कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥

कबहुँ देव ! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै ।
संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥

संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज-समुदाई ।
तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिँ जाई ॥

* जय सियाराम *

Ashish Pandey  
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई ।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥
 
नयन मलिन परनारि निरखि,मन मलिन बिषय सँग लागे ।
हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥

परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये ।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥

तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै ।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥


  

Friday, February 24, 2012

कबहुँक अंब, अवसर ..




Tuesday Feb.21, 2012



 
 
राग केदारा

कबहुँक अंब, अवसर पाइ ।

मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ ॥ १

दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २

बूझिहैँ 'सो है कौन', कहिबी नाम दसा जनाइ ।
सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ॥ ३

जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ
॥ ४

कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी ..







18 February

राग केदारा

कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी ।
जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्योँ, प्यास प्रेम-पानकी ॥ १

सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी ।
निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी ॥ २

बानि बिसारनसील है मानद अमानकी ।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी ॥ ३

~~* जय सियाराम *~~

जानत प्रीति-रीति रघुराई ..




14 February 2012

राग सोरठ

जानत प्रीति-रीति रघुराई ।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई ॥ १

नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई ।
ऐसेहु पितु तेँ अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २

तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई ।
रन पर्-यो बंधु बिभीषन ही को, सोच ह्रदय अधिकाई ॥ ३

घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई ।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४

सहज सरुप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई ।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५

प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई ।
तेरो रिनी हौँ कह्यो कपि सोँ ऐसी मानिहि को सेवकाई ॥ ६

तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई ।
तौ तोहिँ जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम ..




11 February 2012

राग बिहाग

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम ।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १

सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग ।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २

बलिपूजा चाहत नहीँ, चाहत एक प्रीति ।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३

देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत जन-बंधु ।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४

देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान ।
सबको प्रभु, सबमेँ बसै, सबकी गति जान ॥ ५

को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव ।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६

सकुचत हौँ अति राम कृपनिधि ..


7 February 2012


राग बिलावल


सकुचत हौँ अति राम कृपनिधि ! क्योँ करि बिनय सुनावौँ ।
सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ ! मन भावौँ ॥ १


जानत हौँ हरि रुप चराचर, मैँ हठि नयन न लावौँ ।
अंजन-केस-सिखा जुवति, तहँ लोचन-सलभ पठावौँ ॥ २

स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौँ, समुझावौँ ।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौँ ॥ ३

जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौँ

तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्योँ रटि-रटि जनम नसावौँ ॥ ४

'करहु ह्रदय अति बिमल बसहिँ हरि' कहि कहि सबहिँ सिखावौँ ।
हौँ निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौँ ॥ ५

जो तनु धरि हरिपद साधहिँ जन, सो बिनु काज गँवावौँ ।
हाटक-घट भरि धर्-यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६

मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौँ ।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौँ ॥ ७

बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर्-यो, हठि सबसोँ बैर बढ़ावौँ ।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौँ ॥ ८

निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौँ ।
तौ न सिराहिँ कलप सत लागि प्रभु, कहा एक मुख गावौँ ॥ ९

जो करनी आपनी बिचारौँ, तौ कि सरन हौँ आवौँ ।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिँ दिखावौँ ॥ १०

तुससिदास प्रभु सो गुन नहिँ, जेहि सपनेहुँ तुमहिँ रिझावौँ ।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौँ ॥ ११

~* सीताराम सीताराम *~

Saturday, February 4, 2012

रामचंद्र ! रघुनायक तुमसोँ हौँ बिनती केहि भाँति करौँ ..




राग बिलावल

रामचंद्र ! रघुनायक तुमसोँ हौँ बिनती केहि भाँति करौँ ।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौँ ॥ १

पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिँ ह्रदय धरौँ ।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिगु आगि जरौँ ॥ २

भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरौँ ।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेँचि नरकप्रद उदर भरौँ ॥ ३

जानत हौँ निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौँ ।
रज-सम पर-अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतेँ निदरौँ ॥ ४

नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौँ ।
एकौ पल न कबहु अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौँ ॥ ५

जो आचरन बिचारहु मेरो, कलप कोटि लगि औटि मरौँ ।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि, गोपद-ज्योँ भवसिंधु तरौँ ॥ ६


Wednesday, February 1, 2012

सहज सनेही रामसोँ तैँ कियो न सहज सनेह ..


जनवरी ३१, २०१२


राग गौरी

सहज सनेही रामसोँ तैँ कियो न सहज सनेह ।
तातेँ भव-भाजन भयो, सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १

ज्योँ मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि ।
त्योँ सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥  २

दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत ।
स्वारत हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३

करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार ।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४

जासोँ सब नातोँ फुरै, तासोँ न करि पहिचानि ।
तातेँ कछु समुझ्यो नहीँ, कहा लाभ कह हानि ॥ ५

साँचो जान्यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जानि ।
को न गयो, को जात है, को न जैहै करि हितहानि ॥ ६

बेद कह्यो, बुध कहत हैँ, अरु हौँहुँ कहत हौँ टेरि ।
तुलसी प्रभु साँचो हितु, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७

~* सीताराम सीताराम *~




Sunday, January 29, 2012

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान ..


श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवन ॥ १
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूर ।
जद्यपि निकट ह्रदय निज रहे सकल भरिपूरी ॥ २
दुइज द्वैत-मति छाड़ी चरहि महि-मंडल धीर ।
बिगत मोह-माया-मद ह्रदय बसत रघुबीर ॥ ३
तीज त्रिगन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद ।
गुण सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार ।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५
पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पित लागि ।
रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहिं बुताइ लोभागि ॥ ७
सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८
आठईँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम ।
केही प्रकार पाइय हरि, ह्रदय बसहिं बहु काम ॥ ९
नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुःख लीन्ह ॥ १०
दसईँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि ।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारँगपानि ॥ ११
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रैलोक ।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत ।
मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४
चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५
पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास ।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६
त्रिबिध सूल होलिय जरै, खेलिय अब फागु ।
जो जिय चाहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७
श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि ।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८
संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक ।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २०


Wednesday, January 25, 2012

राम राम, राम राम, राम राम, जपत ..


जनवरी २४, २०१२

राग बिहाग

राम राम, राम राम, राम राम, जपत ।
मंगल-मुद उदित होत, कलि मल छल छपत ॥ १

कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत ।
हारहि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २

काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत ।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३

साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत ।
कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४

नाम सोँ प्रतीति-प्रीति ह्रदय सुथिर थपत ।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५


सीताराम .. सीताराम ..


Ashish Pandey:


पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १

जोग, मख, बिबेक, बिरत , बेद-बिदित करम।
करिबै कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम ॥ २

तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जानि भरम।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३




Saturday, January 21, 2012

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी ..


राग सोरठ

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी ।
आरत स्वारथी सब कहैँ बात बावरी ॥ १

जीवन को दानी घन कहा ताहि चाहिये ।
प्रेम-नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २

मीनतेँ न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको ।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३

बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैँ ।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैँ ॥ ४

यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको ।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५

कहत नसानी ह्वैहै हिये नाथ नीकी है ।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६

Thursday, January 19, 2012

रघुपति-भगति करत कठिनाई ..


January 17, 2012


रघुपति-भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई॥ १

जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २

ज्योँ सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतेँ न कोउ बिलगावै ।
अति रसग्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३

सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४

सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीँ ।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीँ ॥ ५

प्रिय रामनामतेँ जाहि न रामो ..


January14,2012

प्रिय रामनामतेँ जाहि न रामो ।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १

सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो ।
राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर धामो ॥ २

नाम-प्रभाउ सहि जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो ।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील भामो ॥ ३

बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो ।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४

रामतेँ अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो ।
भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५

Tuesday, January 10, 2012

श्रीरघुबीरकी यह बानि ..



श्रीरघुबीरकी यह बानि ।
नीचहू सोँ करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १

परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकि कानि ?
लियो सो उर लाइ सुत ज्योँ प्रेमको पहिचानि ॥ २

गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिँसा सानि ?
जनक ज्योँ रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३

प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि ।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४

रजनीचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि ।
भरत ज्योँ उठि ताहि भेँटत देह-दसा भुलानि ॥ ५

कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिँ सुमिरत हानि ।
किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६

राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि ।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७

Saturday, January 7, 2012

राम ! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है .. + राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है ..



राम ! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है ।
सुजन-सनेही, गुरु साहिब, सखा-सुह्रद,
राम नाम प्रेम पन अबिचल बितु है ॥ १

सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है ।
नामको भरोसो-बल चारिहू फलको फल,
सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २

स्वारत-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखो न और हितु है ।
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहुको चितु है ॥ ३



Ashish Pandey: राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है ।

राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है ।
सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १

लाभहू को लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,
पतित-पावन, डरहूको डरु है ।
नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको
सुलभ, सुखद, आपनो-सो घरु है ॥ २

बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो,
नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है ।
ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,
मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३

नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,
साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है ।
नामसोँ निबाह नेह, दीनको दयालु ! देहु,
दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४

Friday, January 6, 2012

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी ..


राग कल्याण


नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी ।
करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे !
एक गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥

काह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,
बात नहिँ जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी ।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिँ,
आस नहिँ एकहू आँक निरबानकी ॥

बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी ।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिँ हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥

भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी ।
पतित-पावन सुनत नाम बिस्त्रामकृत,
भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥

नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-
कूपकहिँ, भूप! मोहि सक्ति आपानकी ।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥