Sunday, January 29, 2012

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान ..


श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवन ॥ १
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूर ।
जद्यपि निकट ह्रदय निज रहे सकल भरिपूरी ॥ २
दुइज द्वैत-मति छाड़ी चरहि महि-मंडल धीर ।
बिगत मोह-माया-मद ह्रदय बसत रघुबीर ॥ ३
तीज त्रिगन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद ।
गुण सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार ।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५
पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पित लागि ।
रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहिं बुताइ लोभागि ॥ ७
सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८
आठईँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम ।
केही प्रकार पाइय हरि, ह्रदय बसहिं बहु काम ॥ ९
नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुःख लीन्ह ॥ १०
दसईँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि ।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारँगपानि ॥ ११
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रैलोक ।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत ।
मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४
चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५
पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास ।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६
त्रिबिध सूल होलिय जरै, खेलिय अब फागु ।
जो जिय चाहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७
श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि ।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८
संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक ।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २०


Wednesday, January 25, 2012

राम राम, राम राम, राम राम, जपत ..


जनवरी २४, २०१२

राग बिहाग

राम राम, राम राम, राम राम, जपत ।
मंगल-मुद उदित होत, कलि मल छल छपत ॥ १

कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत ।
हारहि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २

काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत ।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३

साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत ।
कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४

नाम सोँ प्रतीति-प्रीति ह्रदय सुथिर थपत ।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५


सीताराम .. सीताराम ..


Ashish Pandey:


पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १

जोग, मख, बिबेक, बिरत , बेद-बिदित करम।
करिबै कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम ॥ २

तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जानि भरम।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३




Saturday, January 21, 2012

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी ..


राग सोरठ

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी ।
आरत स्वारथी सब कहैँ बात बावरी ॥ १

जीवन को दानी घन कहा ताहि चाहिये ।
प्रेम-नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २

मीनतेँ न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको ।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३

बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैँ ।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैँ ॥ ४

यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको ।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५

कहत नसानी ह्वैहै हिये नाथ नीकी है ।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६

Thursday, January 19, 2012

रघुपति-भगति करत कठिनाई ..


January 17, 2012


रघुपति-भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई॥ १

जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २

ज्योँ सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतेँ न कोउ बिलगावै ।
अति रसग्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३

सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४

सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीँ ।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीँ ॥ ५

प्रिय रामनामतेँ जाहि न रामो ..


January14,2012

प्रिय रामनामतेँ जाहि न रामो ।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १

सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो ।
राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर धामो ॥ २

नाम-प्रभाउ सहि जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो ।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील भामो ॥ ३

बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो ।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४

रामतेँ अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो ।
भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५

Tuesday, January 10, 2012

श्रीरघुबीरकी यह बानि ..



श्रीरघुबीरकी यह बानि ।
नीचहू सोँ करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १

परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकि कानि ?
लियो सो उर लाइ सुत ज्योँ प्रेमको पहिचानि ॥ २

गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिँसा सानि ?
जनक ज्योँ रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३

प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि ।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४

रजनीचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि ।
भरत ज्योँ उठि ताहि भेँटत देह-दसा भुलानि ॥ ५

कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिँ सुमिरत हानि ।
किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६

राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि ।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७

Saturday, January 7, 2012

राम ! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है .. + राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है ..



राम ! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है ।
सुजन-सनेही, गुरु साहिब, सखा-सुह्रद,
राम नाम प्रेम पन अबिचल बितु है ॥ १

सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है ।
नामको भरोसो-बल चारिहू फलको फल,
सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २

स्वारत-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखो न और हितु है ।
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहुको चितु है ॥ ३



Ashish Pandey: राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है ।

राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है ।
सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १

लाभहू को लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,
पतित-पावन, डरहूको डरु है ।
नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको
सुलभ, सुखद, आपनो-सो घरु है ॥ २

बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो,
नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है ।
ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,
मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३

नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,
साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है ।
नामसोँ निबाह नेह, दीनको दयालु ! देहु,
दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४

Friday, January 6, 2012

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी ..


राग कल्याण


नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी ।
करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे !
एक गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥

काह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,
बात नहिँ जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी ।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिँ,
आस नहिँ एकहू आँक निरबानकी ॥

बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी ।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिँ हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥

भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी ।
पतित-पावन सुनत नाम बिस्त्रामकृत,
भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥

नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-
कूपकहिँ, भूप! मोहि सक्ति आपानकी ।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥