Friday, February 24, 2012

कबहुँक अंब, अवसर ..




Tuesday Feb.21, 2012



 
 
राग केदारा

कबहुँक अंब, अवसर पाइ ।

मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ ॥ १

दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २

बूझिहैँ 'सो है कौन', कहिबी नाम दसा जनाइ ।
सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरिऔ बनि जाइ ॥ ३

जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ
॥ ४

कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी ..







18 February

राग केदारा

कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी ।
जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्योँ, प्यास प्रेम-पानकी ॥ १

सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी ।
निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी ॥ २

बानि बिसारनसील है मानद अमानकी ।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी ॥ ३

~~* जय सियाराम *~~

जानत प्रीति-रीति रघुराई ..




14 February 2012

राग सोरठ

जानत प्रीति-रीति रघुराई ।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई ॥ १

नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई ।
ऐसेहु पितु तेँ अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २

तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई ।
रन पर्-यो बंधु बिभीषन ही को, सोच ह्रदय अधिकाई ॥ ३

घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई ।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४

सहज सरुप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई ।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५

प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई ।
तेरो रिनी हौँ कह्यो कपि सोँ ऐसी मानिहि को सेवकाई ॥ ६

तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई ।
तौ तोहिँ जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम ..




11 February 2012

राग बिहाग

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम ।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १

सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग ।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २

बलिपूजा चाहत नहीँ, चाहत एक प्रीति ।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३

देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत जन-बंधु ।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४

देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान ।
सबको प्रभु, सबमेँ बसै, सबकी गति जान ॥ ५

को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव ।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६

सकुचत हौँ अति राम कृपनिधि ..


7 February 2012


राग बिलावल


सकुचत हौँ अति राम कृपनिधि ! क्योँ करि बिनय सुनावौँ ।
सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ ! मन भावौँ ॥ १


जानत हौँ हरि रुप चराचर, मैँ हठि नयन न लावौँ ।
अंजन-केस-सिखा जुवति, तहँ लोचन-सलभ पठावौँ ॥ २

स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौँ, समुझावौँ ।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौँ ॥ ३

जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौँ

तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्योँ रटि-रटि जनम नसावौँ ॥ ४

'करहु ह्रदय अति बिमल बसहिँ हरि' कहि कहि सबहिँ सिखावौँ ।
हौँ निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौँ ॥ ५

जो तनु धरि हरिपद साधहिँ जन, सो बिनु काज गँवावौँ ।
हाटक-घट भरि धर्-यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६

मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौँ ।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौँ ॥ ७

बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर्-यो, हठि सबसोँ बैर बढ़ावौँ ।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौँ ॥ ८

निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौँ ।
तौ न सिराहिँ कलप सत लागि प्रभु, कहा एक मुख गावौँ ॥ ९

जो करनी आपनी बिचारौँ, तौ कि सरन हौँ आवौँ ।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिँ दिखावौँ ॥ १०

तुससिदास प्रभु सो गुन नहिँ, जेहि सपनेहुँ तुमहिँ रिझावौँ ।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौँ ॥ ११

~* सीताराम सीताराम *~

Saturday, February 4, 2012

रामचंद्र ! रघुनायक तुमसोँ हौँ बिनती केहि भाँति करौँ ..




राग बिलावल

रामचंद्र ! रघुनायक तुमसोँ हौँ बिनती केहि भाँति करौँ ।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौँ ॥ १

पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिँ ह्रदय धरौँ ।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिगु आगि जरौँ ॥ २

भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरौँ ।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेँचि नरकप्रद उदर भरौँ ॥ ३

जानत हौँ निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौँ ।
रज-सम पर-अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतेँ निदरौँ ॥ ४

नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौँ ।
एकौ पल न कबहु अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौँ ॥ ५

जो आचरन बिचारहु मेरो, कलप कोटि लगि औटि मरौँ ।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि, गोपद-ज्योँ भवसिंधु तरौँ ॥ ६


Wednesday, February 1, 2012

सहज सनेही रामसोँ तैँ कियो न सहज सनेह ..


जनवरी ३१, २०१२


राग गौरी

सहज सनेही रामसोँ तैँ कियो न सहज सनेह ।
तातेँ भव-भाजन भयो, सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १

ज्योँ मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि ।
त्योँ सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥  २

दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत ।
स्वारत हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३

करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार ।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४

जासोँ सब नातोँ फुरै, तासोँ न करि पहिचानि ।
तातेँ कछु समुझ्यो नहीँ, कहा लाभ कह हानि ॥ ५

साँचो जान्यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जानि ।
को न गयो, को जात है, को न जैहै करि हितहानि ॥ ६

बेद कह्यो, बुध कहत हैँ, अरु हौँहुँ कहत हौँ टेरि ।
तुलसी प्रभु साँचो हितु, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७

~* सीताराम सीताराम *~