Wednesday, December 28, 2011

जागु,जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी ..



जागु,जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी । १
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनि ॥

सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे ।
बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २

कहैँ बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिँ रे ।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिँ रे ॥ ३

तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे ।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४

Monday, December 26, 2011

जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव ..


राग विभास


जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे ।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु, दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १

मोहमय कुहु-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रुप सुपन जू परे ।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २

भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान
काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे ।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३

श्रवण सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे ।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४

Tuesday, December 20, 2011

सेइये सुसाहिब राम सो


Dec.20. 2011

सेइये सुसाहिब राम सो ।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १

सारद सेस साधु महिमा कहैँ, गुनगन-गायक साम सो ।
सुमिरि सप्रेम नाम जासोँ रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २

गमन बिदेस न लेस कलेसको, सकुचत सकृत प्रनाम सो ।
साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३

टहल सहल जन महल-महल, जागत चारो जुग जाम सो ।
देखत दोष न खीझत, रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४

जाके भजे तिलोक-तिलक भये, त्रिजग जोनि तनु तामसो ।
तुलसी ऐसे प्रभुहिँ भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५

काजु कहा नरतनु धरि सार्-यो


Dec.17, 2011


काजु कहा नरतनु धरि सार्-यो ।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार्-यो ॥ १

द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार्-यो ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिँ काटि निवार्-यो ॥ २

संसय-सिंधु नाम बोहि भजि निज आतमा न तार्-यो ।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिँ हार्-यो ॥ ३

देखि आनकी सहज संपदा द्वेष-अनल मन जार्-यो ।
सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार्-यो ॥ ४

प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैँ मन क्रम बिसार्-यो ।
तुलसीदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार्-यो ॥ ५

Wednesday, December 14, 2011

'बाप! आपने करत. . .


'बाप! आपने करत. . .'
by Chandrasekhar Nair on Tuesday, 6 September 2011 at 09:14


बाप! आपने करत मेरी घनि घटि गई ।
लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि
रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १

रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई ।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २

पतित-पावन हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको आधार, दीनबंधु, दई ।
इन्हमेँ न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३

स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितेँ अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक -रंग-रई ।
बड़े कुसमाज राज ! आजुलौँ जो पाये दिन,
महाराज ! केहू भाँति नाम-लोट लई ॥ ४

राम ! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दूसरि न बिधि निरमई ।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५

'पाहि, पाहि राम ! ..'


'पाहि, पाहि राम ! ..'
by Chandrasekhar Nair on Thursday, 15 September 2011 at 08:43


पाहि, पाहि राम ! पाहि रामभद्र, रामचंद्र !

सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौँ सरन ।

दीनबन्धु ! दीनता-दरिद्र-दाह दोष दुख
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १


जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन ।

तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आस्त्रम, बरन ॥ २


बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन ।

ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३


सिला, गुह गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन ।

पील उद्धरन ! सीलसिँधु ! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४

' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '


' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 17 September 2011 at 09:39


काहे न रसना, रामहि गावहिँ ?

निसदिन पर-अपवाद वृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १


नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।

ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २


काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि ।

तिनहिँ हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३


जातरुप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि ।

सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४


बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहिँ ।

तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५

जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने





जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने
By Chandrasekhar Nair · Thursday, 6 October 2011



जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने।

दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥१



अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।

जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥ २



तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।

भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥ ३



जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिध दुख ते निर्बहे।

भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥ ४



जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।

ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरि॥ ५



बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।

जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिँ भव नाथ सो समरामहे॥ ६



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनि पतिनी तरी।

नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥ ७



ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।

पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥ ८



अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।

षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥ ९



फल जुगत बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।

पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥ १०



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीँ॥ ११



करुनातयन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीँ।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीँ॥१२

कलि नाम कामतरु रामको ।




कलि नाम कामतरु रामको ।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १


नाम लेत दाहिनो होत मन, बाम बिधाता बामको ।
कहत मुनीस महेत महातम, उलटे सूधे नामको ॥ २


भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको ।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३

कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,



कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सोँ, बलि दीनता ।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥

दुहु ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समचीनता ।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीति की प्रबीनता ॥

एहि दरबार है गरब तेँ सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता ।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥

यहाँकी सयानप, अनायप सहस सम,
सूधौ सतधाय कहे मिटति मलीनता ।
गीध-सिला सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साईँ सो सनेह-हित-हीनता ॥

सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता ।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥

Tuesday, December 6, 2011

कहाँ जाउँ, कासोँ कहौँ, कौन सुनै दीनकी




(राग बिलावल)


कहाँ जाउँ, कासोँ कहौँ, कौन सुनै दीनकी ।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १

जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैँ ।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैँ ॥ २

गजराज-काज खगराज तजि धायो को ।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३

मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके ।
किये बहुमोल तैँ करैया गीध-श्राधके ॥ ४

तुलसीकी तेरे ही बनाये, बलि, बनैगी ।
प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५

Saturday, December 3, 2011

रघुपति बिपति-दवन



रघुपति बिपति-दवन ।

परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पवन ॥ 1


कूर, कुटिल, कुलहीन, दीन, अति मलिन जवन ।

सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ 2


गज-पिँगला-अजामिल-से खल गनै धौँ कवन ।

तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ 3



! जय श्री सीताराम !

Saturday, November 26, 2011

मन मेरे, मानहि सिख मेरी


Sat. 26, 2011

मन मेरे, मानहि सिख मेरी ..


मन मेरे, मानहि सिख मेरी ।
जो निजु भगति चहै हरि केरि ॥ 1

उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते ।
सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ 2

दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई ।
सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ 3

सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही ।
जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ 4

तुलसिदास बिनु असि मति आये ।
मिलहिँ न राम कपट लौ लाये ॥ 5

हनुमत-स्तुति: राग धनाश्री (विनय-पत्रिका: गोस्वामी तुलसीदास)



हनुमत-स्तुति: राग धनाश्री (विनय-पत्रिका: गोस्वामीतुलसीदास)
by Chandrasekhar Nair on Tuesday, 14 December 2010 at 13:15

जनवरी ११, २०११

जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी, केसरी-सुवन भुवनैकभर्ता |
दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे, भक्त-संतापहर्ता || १

जयति धर्मार्थ-कामापवर्गद विभो, ब्रम्हलोकादि-वैभव-विरागी |
वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मव्रती, जानकीनाथ-चरणानुरागी || २

जयति बिहगेश-बलबुद्धि-बेगाति-मद-मथन, मनमथ-मथन, उर्ध्वरेता |
महानाटक-निपुन, कोटि-कविकुल-तिलक, गानगुन-गर्व-गन्धर्व-जेता || ३

जयति मंदोदरी-केश-कर्षण, विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट मानी |
भूमिजा-दु:ख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी || ४

जयति रामायण-श्रवण-संजात रोमांच, लोचन सजल, शिथिल वाणी |
रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर, पाहि, दास तुलसी शरण, शूलपाणी || ५

जनवरी ४, २०११

जयति वात-संजात, विख्यात विक्रम, बृहदबाहू, बलबिपुल, बालधिबिसाला |
जातरूपाचलाकारविग्रह, लसल्लोम विद्युल्लता ज्वालमाला ||१

जयति बालार्क वर-वदन, पिंगल-नयन, कपिश-कर्कश-जटाजूटधारी |
विकट भृकुटी, वज्र दशन नख, वैरी-मदमत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी ||२

जयति भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर, धनञ्जय-रथ-त्रान-केतु |
भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित, कालदृक सुयोधन-चामू-निधन-हेतु || ३

जयति गजराजदातार, हन्तार संसार-संकट, दनुज-दर्पहारी |
इति-अति-भीति-गृह-प्रेत-चौरानल व्याधिबाधा-शमन घोर मारी || ४

जयति निगमागम व्याकरण करणालिपि, काव्यकौतुक-कला-कोटि-सिंधो |
सामगायक, भक्त-कामदायक, वामदेव, श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो || ५

जयति घर्मांशु-संदग्ध-संपाती-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देह्दाता |
कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा, प्रनत तुलसीदास तात-माता || ६


दिसम्बर २८, २०१०

जयति मर्कटाधीश, मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद-मंगलालय, कपाली |
मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुल, घोर संसार-निशि किरणमाली||१



जयति लसदंजनादितिज, कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव, जगदार्तीहर्ता |
लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हंस हनुमान कल्याणकर्ता || २



जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह,वज्रसार सर्वांग भुजदंड भारी |
कुलिषनख, दशनवर लसत ,बालधिबृहद, वैरी-शस्त्रास्तधर कुधरधारी || ३



जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन, रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी |
कीष-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन, दालान कानन तरुण तेजरासी || ४



जयति पातोधि-पाषाण-जलयांकर, यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता |
दुष्ट रावण-कुम्भकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित, कर्म-परिपाक-दाता || ५



जयति भुवनैकभूषण, विभीषणवरद, विहित कृत राम-संग्राम साका |
पुष्पकारूड़ सौमित्री-सीता-सहित, भानु-कुलभानु-कीरति-पताका || ६



जयति पर-यन्त्रमंत्राभिचार-ग्रसन, कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता |
शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता || ७



जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विषद, वेड-वेदांगविद ब्रम्हवादी |
ज्ञान-विज्ञानं-वैराग्य-भाजन विभो, विमल गुन गनती शुकनारदादि || ८



जयति काल-गुन-कर्म-माया-मथन, निश्छलज्ञान,वृत-सत्यरत, धर्मचारी |
सिद्ध-सुरवृंद-योगीन्द्र-सेवित सदादास तुलसी प्रनत भय-तमारी || ९




:: हे हनुमानजी! तुम्हारी जय हो । तुम बंदरों के राजा, सिंहके  सामान पराक्रमी, देवताओं में श्रेष्ट, आनंद और कल्याणके स्थान तथा कपालधारी शिवजी के अवतार हो । मोह, मद, क्रोध, काम आदि दुष्टोंसे व्याप्त घोर संसाररुपी अंधकारमयी रात्रीके नाश करने वाले तुम साक्षात सूर्या हो ।। १  ।।

तुम्हारी जय हो
। तुम्हारा जन्म अंजनीरुपी अदिति (देवमाता) और वानरोंमें सिंहके सामान केसरीरुपी कश्यपसे हुआ है । तुम जगतके कष्टोंको हरनेवाले हो तथा लोक और लोकपालरुपी चकवा-चकवी और कमलोंका शोक नाश करनेवाले साक्षात कल्याण-मूर्ती सूर्या हो ।। २ ।।

तुमारी जय हो 
।  तुम्हारी शरीर बड़ा विशाल और भयंकर है, प्रत्येक अंग वज्रके सामान है, भुजदंड बड़े भारी हैं तथा वज्रके  सामान नख और सुन्दर दांत शोभित हो रहे हैं । तुम्हारी पूँछ बड़ी लम्बी है, शत्रुओंके संहारके लिए तुम अनेक प्रकारके अस्त्र, शस्त्र और पर्वतोंको लिए रहते हो ।। ३ ।।

तुम्हारी जय हो
। तुम श्रीसीताजीके शोक-सन्तापका नाश करनेवाले और श्रीराम-लक्ष्मणके आनंदरुपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले हो । बन्दर-स्वाभावसे खेलमें ही पूँछसे लंका जला देनेवाले, अशोक-वनको उजाड़नेवाले, तरुण तेज के पुंज मध्यानकाल के सूर्यरूप हो ।। ४ ।।

तुम्हारी जय हो ।  तुम समुन्द्रपर
पत्थरका पुल बाँधनेवाले, राक्षसोंके महान आनन्दके नाश करनेवाले तथा दुष्ट रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादके मर्म-स्थानोंको तोड़कर उनके कर्मों का फल देनेवाले हो ।। ५ 


तुम्हारी जय हो । तुम त्रिभुवनके भूषन हो, विभीषणको राम-भक्तिका वर देनेवाले हो और रणमें श्रीरामजीके साथ बड़े-बड़े काम करनेवाले हो । लक्ष्मण और सीताजी सहित पुष्पक-विमानपर विराजमान सूर्यकुलके सूर्य श्रीरामजीकी कीर्ति-पताका तुम्ही हो ।। ६ ।।

तुम्हारी जय हो । तुम शत्रुओं द्वारा किये जानेवाले यंत्र-मन्त्र और अभिचार (मोहन उच्चाटन आदि प्रयोगों तथा जादू-टोनों) - को ग्रसनेवाले तथा गुप्त मारण-प्रयोग और प्राणनाशिनी कृत्या आदि क्रूर देवियोंका नाश करनेवाले हो । शाकिनी, डाकिनी, पूतना, प्रेत, वेताल, भूत और प्रमथ आदि भयानक जीवोंके नियंत्रण-करता शासक हो ।। ७ ।।

तुम्हारी जय हो । तुम वेदान्तके जाननेवाले, नाना प्रकारकी विद्याओंमें विशारद, चार वेद और छ: वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष) - के ज्ञाता तथा शुद्ध ब्रह्मके स्वरुपका निरूपण करनेवाले हो । ज्ञान, विज्ञान और वैराग्यके पात्र हो अर्थात तुम्हीने इनको अच्छी तरहसे जाना है । तुम समर्थ हो । इसीसे शुकदेव और नारद आदि देवर्षि सदा तुम्हारी निर्मल गुणावली गाया करते हैं ।। ८ ।।

तुम्हारी है हो । तुम काल (दिन, घडी, पल आदि), त्रिगुण (सत्त्व, राज, तम), कर्म (संचित, प्रारब्ध, क्रियामाण) और मायाका नाश करनेवाले हो । तुम्हारी ज्ञानरूप व्रत सदा निश्चल है तथा तुम सत्यपरायण और धर्मका आचरण करनेवाले हो । सिद्ध, देवगन और योगिराज सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं । हे भाव-भयरुपी अन्धकारका  नाश करनेवाले सूर्य ! यह दास तुलसी तुम्हारी शरण है ।। ९ ।।


श्री राम जय राम जय जय राम !!
श्री राम जय राम जय जय राम !!
श्री राम जय राम जय जय राम !!
श्री राम जय राम जय जय राम !!
श्री राम जय राम जय जय राम !! 

 



दिसम्बर २१, २०१०

जयति मंगलागार, संसार भारापहर, वानाराकारविग्रह पुरारी |
राम-रोषानल-ज्वाल्माला-मिष ध्वांतचर-सलभ-संहारकारी || १

जयति मरुदंजनामोद-मंदिर, नतग्रीव सुग्रीव-दु:खैकबंधो |
यातुधानोधत-क्रुद्ध-कालाग्निहर, सिद्ध-सुर-सज्जनानंद-सिंधो || २

जयति रुद्राग्रणी, विश्व-वंद्याग्रणी, विश्वविख्यात-भट-चक्रवर्ती |
सामगाताग्रणी, कामजेताग्रणी, रामहित, रामभक्तानुवर्ती || ३

जयति संग्रामजय, रामसंदेहसर, कौशला-कुशल-कल्याणभाषी |
राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नरनारी-शीतलकरन कल्पशाषी || ४

जयति सिंघसनासीन सीतारमण, निरखि, निर्भरहरष नृत्यकारी |
राम संभ्राज शोभा-सहित सर्वदा तुलसीमानस-रामपुर-विहारी || ५


दिसम्बर १४, २०१०



जयत्यंजनी-गर्भ-अम्बोधि-सम्भूत विधु विबुध-कुल-कैरवानंदकारी |

केसरी-चारु-लोचन-चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी || १



जयति जय बालकपि केलि-कौतुक उदित-चंडकर-मंडल-ग्रासकर्त्ता |

राहू-रवि-शक्र-पवि-गर्व-खर्वीकरण शरण-भयहरण जय भुवन-भर्त्ता || २



जयति रणधीर, रघुवीरहित, देवमणि, रूद्र-अवतार, संसार-पाता |

विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपुष, विमलगुण, बुद्धि-वारिधि-विधाता || ३



जयति सुग्रीव-ऋक्षादी-रक्षण-निपुण, बालि-बलशालि-बध-मुख्यहेतु |

जलधि-लंघन सिंह सिंहिका-मद-मथन, रजनीचर-नगर-उत्पात-केतु || ४



जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका |

लूम लीलाSनल-ज्वालमालाकुलित होलिकाकरण लंकेश-लंका || ५



जयति सौमित्रि-रघुनंदनानंद्कर, ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी |

बद्ध-वारिधि-सेतु अमर-मंगल-हेतु, भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी || ६



जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट, चंड-भुजदंड तरु-शैल-पानी |

समर-तैलिक-यन्त्र तिल-तमीचर-निकर, पेरी डारे सुभट घाली घानी || ७



जयति दशकंठ-घटकर्ण-वारिद-नाद-कदन-कारन, कालनेमि-हंता |

अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट, भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता || ८



जयति विश्व-विख्यात बानैत-विरुदावली, विदुष बरनत वेद विमल बानी |

दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी || ९

सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि,सर्व, सर्वेश, सर्वाभिरामं ..


जनवरी ८, २०११


सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि,सर्व, सर्वेश, सर्वाभिरामं |
शर्व-ह्यदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूपभूपालमणि नौमी रामं || १

सर्वसुख-धाम गुनग्राम, विश्रामप्रद, नाम सर्वसम्पदमति पुनीतं |
निर्मलं शांत, सुविशुद्ध, बोधतयन, क्रोध-मद-हरन, करुना-निकेतं || २

अजित, निरुपाधि, गोतीतंव्यक्त, विभुमेकमनवद्यमजम द्वितीयं |
प्रकृतं, प्रकट परमात्मा, परमहित, प्रेरकानंत वन्दे तुरीयं || ३

भूधरम सुन्दरम, श्रीवरं, मदन-मद-मथन सौंदर्य-सीमातीरम्यं |
दुष्प्राप्य, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर्क्य, दुष्पार, संसारहर, सुलभ, मृदुभाव-गम्यं || ४

सत्यकृत, सत्यरत, सत्यवृत, सर्वदा, पुष्ट, संतुष्ट, संकष्टहारी |
धर्मवर्मनी ब्रम्हकर्मबोधैक, विप्रपूज्य, ब्रम्हजनप्रिय, मुरारी || ५

नित्य, निर्मम, नित्यमुक्त, निर्माण, हरी, ज्ञानघन, सच्चिदानंद मूलं |
सर्वरक्षक, सर्वभक्षकाध्यक्ष, कूटस्थ, गूढार्चि, भक्तानुकूलम || ६

सिद्ध-साधक-साध्य,वाच्य-वाचकरूप,मंत्र-जापक-जाप्य,सृष्टि-स्त्रिष्टा |
परमकारन, कंजनाभ,जलदाभतनु,सगुन,निर्गुनसकल दृश्य-दृष्टा ||७

व्योम-व्यापक, विरज, ब्रम्ह, वरदेश, वैकुण्ठ, वामन विमल ब्रम्हचारी |
सिद्ध-वृन्दारकावृन्दवन्दित सदा, खंडी पाखण्ड-निर्मूलकारी || ८

पूर्णानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुन-सन्निपातं |
बचन-मन-कर्म-गत शरन तुलसीदास त्रास-पातोधि इव कुम्भजातं || ९

* नौमी नारायणं *


दिसम्बर १६, २०१०



नौमी नारायणं नरं करुणानयं, ध्यान-पारायणं, ज्ञान-मूलं |

अखिल संसार-उपकार-कारण, सदयह्रदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं || १



श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं |

तरुण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन राकेश, कर-निकर-हासं || २



सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद बुध-शम्भू-सेवित, अमानं |

अरुण पद्कंज-मकरंद मंदाकिनी मधुप-मुनिवृन्द कुर्वन्ति पानं || ३



शक्र-प्रेरित घोर मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रम्हचारी |

मार्कंडेय मुनिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी || ४



पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं |

सिद्ध-योगीन्द्र-वृंदारकानंदप्रद, भद्रदायक दरस अति अनूपं || ५



मान मानभंग, चितभंग मद, क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन-भर्ता |

द्वेष-मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता || ६



विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खडगधारा |

धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा || ७



परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! नहीं हाथ वर विरति-यष्टि |

दर्शानारत दास, त्रसित माया-पाश, त्राहि हरी, त्राहि हरी, दास कष्टी || ८



दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति, खेद, मति मोह नाशी |

देहि अवलंब न विलंब अम्भोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशि || ९

ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन ..


"ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन" ! - (विनय पत्रिका)
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 18 December 2010 at 20:39



ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन | हरण दुःखदुंद गोबिंद आनंदघन || १

अचरचर रूप हरी, सरबगत बसत, इति बासना धुप दीजै |
दीप निजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम, प्रौड़ अभिमान चितबृत्ति चीजै || २


भाव अतिशय विषाद प्रवर नैवेद्य शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी |
प्रेम-ताम्बूल गत शूल संशय सकल, विपुल भाव-बासना-बीजहारी ||३

अशुभ-शुभकर्म-घृतपूर्ण दश वर्तिका, त्याग पावक, सतोगुण प्रकासम |
भक्ति-बैराग्य-विज्ञान दीपावली, अर्पि नीराजनं जगनिवासम || ४


बिमल हृदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ, शयन विश्राम श्रीरामराया |
क्षमा-करुना प्रमुख तत्र परिचारिका, यत्र हरी तत्र नहीं भेद-माया || ५


एही आरती-निरत संकटि, श्रुति, शेष, शिव, देवऋषि, अखिलमुनी तत्त्व-दरसी |
करै सोई तरै, परिहरै कामादि मल, वादादि इति अमलमति-दास तुलसी || ६

दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई


दीनबंधु-रघुराई : 'विनय पत्रिका-गोस्वामी तुलसीदास'
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 15 January 2011 at 17:38


दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई |

सुनहूँ नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई || १



कबहूँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई |

कबहूँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहूँ दया अति सोई || २



कबहूँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहूँ भूप अभिमानी |

कबहूँ मूढ़, पंडित बिंड बरत, कबहूँ धर्मरत ज्ञानी || ३



कबहूँ देव ! जग धनमय रिपुमय कबहूँ नारिमय भासै |

संसृति-सन्निपात दारुन दुःख बिनु हरी-कृपा न नासै || ४



संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज-समुदाई |

तुलसीदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहीं जाई || ५

"बंदौ रघुपति करुना निधान"


"बंदौ रघुपति करुना निधान" by Chandrasekhar Nair on Saturday, 22 January 2011 at 13:17




बंदौ रघुपति करुना निधान | जाते छुटे भव-भेद-ज्ञान ||



रघुबंश-कुमुद-सुखप्रद निसेस | सेवत पदपंकज अज महेस ||



निज भक्त-ह्रदय-पाथोज-भृंग | लावण्य बपुष अगणित अनंग ||



अति प्रबल मोह-तम-मार्तंड | अज्ञान-गहन-पावक प्रचंड ||



अभिमान-सिन्धु-कुम्भज उदार | सुररंजन, भंजन भूमिभार ||



रागादि-सर्पगन-पन्नगारि | कंदर्प-नाग-मृगपति, मुरारी ||



भव-जलधि-पोत चरनारबिन्द | जानकी-रवन आनंद-कंद ||



हनुमंत-प्रेम-बापि-मराल | निष्काम कामधुक गो दयाल ||



त्रैलोक-तिलक, गुनगहन राम | कह तुलसीदास बिश्राम-धाम ||

* जय राम रमारमणं * by Chandrasekhar Nair on Thursday, 27 January 2011 at 16:53



जय राम रमारमणं समनं | भव ताप भयाकुल पाहि जनम ||



अवधेस सुरेस रमेस बिभो | सरनागत मागत पाहि प्रभो ||



दससीस बिनासन बीस भुजा | कृत दूरी महा महि भूरी रुजा ||



रजनीचर ब्रिंद पतंग रहे | सर पावक तेज प्रचंड दहे ||



महि मंडल मंडन चारुतरम | घृत सायक चाप निषंग बरं ||



मद मोह महा ममता रजनी | तम पुंज दिवाकर तेज अनि ||



मनजात किरात निपात किये | मृग लोग कुभोग सारें हिये ||



हटि नाथ अनाथनि पाहि हरे | बिषया बन पांवर भूली परे ||



बहु रोग बियोगन्हि लोग हए | भवधान्घ्री निरादर के फल ऐ ||



भव सिन्धु अगाध परे नर ते | पद पंकज प्रेम न जे करते ||



अति दीन मलीन दुखी नितहीन | जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं ||



अवलंब भवन्त कथा जिन्ह के | प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ||



नहीं राग न लोभ न मान मदा | तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ||



एही ते तव सेवक होत मुदा | मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||



करि प्रेम निरंतर नेम लिए | पद पंकज सेवत सुद्ध हिये ||



सम मानि निरादर आदरहि | सब संत सुखी बिचरंति महि ||



मुनि मानस पंकज भृंग भजे | रघुबीर महा रंधीर अजे ||



तव नाम जपामि नमामि हरि | भव रोग महागद मान अरि ||



गुन सील कृपा परमायतनं | प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ||



रघुनंद निकंदय द्वंद्वुघनं | महिपाल बिलोकय दीन जनम ||





बार बार बर मांगउ हरषि देहु श्रीरंग | पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग || १४(क)



बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास | तब प्रभु कपिन्ह दिवाय सब बिधि सुखप्रद बास || १४(ख)

'पाहि, पाहि राम ! ..' by Chandrasekhar Nair on Thursday, 15 September 2011 at 08:43



पाहि, पाहि राम ! पाहि रामभद्र, रामचंद्र !

सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौँ सरन ।

दीनबन्धु ! दीनता-दरिद्र-दाह दोष दुख
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥


जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन ।

तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आस्त्रम, बरन ॥


बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन ।

ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥


सिला, गुह गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन ।

पील उद्धरन ! सीलसिँधु ! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥

Monday, November 21, 2011

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो - 'विनय-पत्रिका' (गोस्वामी तुलसीदास) by Chandrasekhar Nair on Wednesday, 16 March 2011 at 12:46



प्रिय रामनामतें जाहि न रामो | ताको भलो कठिन कलिकालहु आदि-मध्य-परिनामो || १



सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो | राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छांह घोर धामों || २



नाम-प्रभु सही जो कहै कोऊ सिला सरोरूह जामो | जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भयि सुकृतसील भील-भामो || ३



बाल्मीकि-अजामिल के कछु हुतो न साधन सामो | उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनी जितो लालामो || ४



रामते अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो | भये बजाई दाहिने जो जपि तुलसीदास.से बामों || ५

'नाहिंन आवत आन भरोसो।' by Chandrasekhar Nair on Saturday, 20 August 2011 at 09:54



नाहिंन आवत आन भरोसो।

यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्त्रम-फलनि फरो सो॥


तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जेहि जो रुचै करो सो।

पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो॥


आगम-बिधि जप-जाग करत नर सरत न काज खरो सो।

सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो॥


काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।

बिगरत मन सन्यास लेत जल नावत आम घरो सो॥


बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।

गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोहिँ लगत राज-डगरो सो॥


तुलसी बिनु परतीति प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।

रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो॥

'राम! राखिए सरन' by Chandrasekhar Nair on Tuesday, 30 August 2011 at 08:48



राम! राखिए सरन, राखि आए सब दिन।
बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयालु दूजो,
आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन॥ 1

लाले पाले पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी, नाथ! पै अनाथनिसोँ भए न उरिन।
स्वामी समरथ ऐसो, हौँ तिहारो जैसौ-तैसो काल-चाल हेरि होति हिए घनी घिन॥ 2

खीझि-रीझि, बिहँसि-अनख, क्योँ हूँ एक बार 'तुलसी तू मेरो' बलि कहियत किन?
जाहिँ सूल निरमूल, होहिँ सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी सौँ, तेहि छिन॥ 3

'बाप! आपने करत. . .' by Chandrasekhar Nair on Tuesday, 6 September 2011 at 09:14




बाप! आपने करत मेरी घनि घटि गई ।
लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि
रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥

रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई ।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥

पतित-पावन हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको आधार, दीनबंधु, दई ।
इन्हमेँ न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥

स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितेँ अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक -रंग-रई ।
बड़े कुसमाज राज ! आजुलौँ जो पाये दिन,
महाराज ! केहू भाँति नाम-लोट लई ॥

राम ! नामको प्रताप जानियत नीके आप, मोको गति दूसरि न बिधि निरमई ।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥

' काहे न रसना, रामहि गावहिँ ' by Chandrasekhar Nair on Saturday, 17 September 2011 at 09:39




काहे न रसना, रामहि गावहिँ ?

निसदिन पर-अपवाद वृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥


नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।

ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥


काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि ।

तिनहिँ हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥


जातरुप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि ।

सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥


बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहिँ ।

तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥

Saturday, November 5, 2011

जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने








जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने।

दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥१



अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।

जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥ २



तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।

भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥ ३



जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिध दुख ते निर्बहे।

भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥ ४



जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।

ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरि॥ ५



बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।

जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिँ भव नाथ सो समरामहे॥ ६



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनि पतिनी तरी।

नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥ ७



ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।

पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥ ८



अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।

षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥ ९



फल जुगत बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।

पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥ १०



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीँ॥ ११



करुनातयन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीँ।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीँ॥१२