Friday, February 24, 2012

जानत प्रीति-रीति रघुराई ..




14 February 2012

राग सोरठ

जानत प्रीति-रीति रघुराई ।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई ॥ १

नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई ।
ऐसेहु पितु तेँ अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २

तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई ।
रन पर्-यो बंधु बिभीषन ही को, सोच ह्रदय अधिकाई ॥ ३

घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई ।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४

सहज सरुप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई ।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५

प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई ।
तेरो रिनी हौँ कह्यो कपि सोँ ऐसी मानिहि को सेवकाई ॥ ६

तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई ।
तौ तोहिँ जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७

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