Wednesday, February 1, 2012

सहज सनेही रामसोँ तैँ कियो न सहज सनेह ..


जनवरी ३१, २०१२


राग गौरी

सहज सनेही रामसोँ तैँ कियो न सहज सनेह ।
तातेँ भव-भाजन भयो, सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १

ज्योँ मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि ।
त्योँ सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥  २

दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत ।
स्वारत हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३

करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार ।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४

जासोँ सब नातोँ फुरै, तासोँ न करि पहिचानि ।
तातेँ कछु समुझ्यो नहीँ, कहा लाभ कह हानि ॥ ५

साँचो जान्यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जानि ।
को न गयो, को जात है, को न जैहै करि हितहानि ॥ ६

बेद कह्यो, बुध कहत हैँ, अरु हौँहुँ कहत हौँ टेरि ।
तुलसी प्रभु साँचो हितु, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७

~* सीताराम सीताराम *~




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