Friday, February 24, 2012

सकुचत हौँ अति राम कृपनिधि ..


7 February 2012


राग बिलावल


सकुचत हौँ अति राम कृपनिधि ! क्योँ करि बिनय सुनावौँ ।
सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ ! मन भावौँ ॥ १


जानत हौँ हरि रुप चराचर, मैँ हठि नयन न लावौँ ।
अंजन-केस-सिखा जुवति, तहँ लोचन-सलभ पठावौँ ॥ २

स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौँ, समुझावौँ ।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौँ ॥ ३

जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौँ

तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्योँ रटि-रटि जनम नसावौँ ॥ ४

'करहु ह्रदय अति बिमल बसहिँ हरि' कहि कहि सबहिँ सिखावौँ ।
हौँ निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौँ ॥ ५

जो तनु धरि हरिपद साधहिँ जन, सो बिनु काज गँवावौँ ।
हाटक-घट भरि धर्-यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६

मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौँ ।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौँ ॥ ७

बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर्-यो, हठि सबसोँ बैर बढ़ावौँ ।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौँ ॥ ८

निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौँ ।
तौ न सिराहिँ कलप सत लागि प्रभु, कहा एक मुख गावौँ ॥ ९

जो करनी आपनी बिचारौँ, तौ कि सरन हौँ आवौँ ।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिँ दिखावौँ ॥ १०

तुससिदास प्रभु सो गुन नहिँ, जेहि सपनेहुँ तुमहिँ रिझावौँ ।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौँ ॥ ११

~* सीताराम सीताराम *~

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