Thursday, October 3, 2013

तोसो हौं फिरि फिरि हित .. (राग बिलावल, विनय-पत्रिका पद संo १३३)





25.06.2013

तोसो हौं फिरि फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत ।
सुनि मन, गुनि, समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥

छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत ।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥

बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत ।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥

बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत ।
योंही जिय जानि, मानि सठ ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥

पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत ।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥


:: अरे जीव ! मैं तुझसे बार-बार हितकारी, प्रिय, पवित्र और सत्य वचन कहता हूँ, इन्हें सुनकर, मनमें विचारकर और समझकर भी तू सुगम और सुन्दर रास्ता क्यों नहीं पकड़ता ? अर्थात श्रीराम की शरण क्यों नहीं हो जाता ? ॥ १ ॥
छोटा-बड़ा, खोटा-खरा, जो यहाँ संसार में रहता है, उनमें बता, ऐसा कौन है, जो अपना भला न चाहता हो ? ॥ २ ॥
ब्रम्हा से लेकर छोटे-छोटे कीड़े तक सुख से सुखी होते हैं और दुःख से जलते हैं, पशुपालक ग्वाले की तरह परमात्मा जीवरूपी पशुओं को (अज्ञानसे) बांधता, (ज्ञानसे) खोलता और उन्हें (कर्मोंमें) जोतता है ॥३ ॥
विषयों के सुखों को देख. वे तो सर के बोझे को कंधे पर रखने के सामान हैं. अर्थात विषय-सुख में सुख है ही नहीं, इस तरह मन में समझकर मान जा. अरे मूर्ख ! क्यों कष्ट सह रहा है ? ॥ ४ ॥
तनिक विचार तो कर, मृगतृष्णा के जल को मथकर किसने घी पाया है ? अर्थात असत संसार के काल्पनिक पदार्थों में सच्चा सुख कैसे मिल सकता है ? हे तुलसी ! तू तो उसी प्रभुकी शरण में जा, जिससे सब कुछ प्राप्त होता है ॥ ५ ॥  

 

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