Thursday, October 3, 2013

हौं रघुबंसमनि को दूत । .. (राग केदारा- गीतावली सुन्दरकाण्ड)



06.07.2013

हौं रघुबंसमनि को दूत ।
मातु मानु प्रतीति जानकि ! जानि मारुतपूत ॥ १ ॥

मैं सुनी बातैं असैली, जे कही निसिचर नीच ।
क्यों न मारै गाल, बैठो काल-डाढ़नि बीच ॥ २ ॥

निदरि अरि, रघुबीर-बल लै जाउँ जौ हठि आज ।
डरौं आयसु-भंगतें, अरु बिगरिहै सुरकाज ॥ ३ ॥

बाँधि बारिधि, साधि रिपु, दिन चारिमें दोउ बीर ।
मिलहिंगे कपि-भालु-दल सँग, जननि ! उर धरु धीर ॥ ४ ॥

चित्रकूट-कथा, कुसल कहि सीस नायो कीस ।
सुह्रद-सेवक नाथको लखि दई अचल असीस ॥ ५ ॥

भये सीतल स्त्रवन-तन-मन सुने बचन-पियूष ।
दास तुलसी रही नयननि दरसहीकी भूख ॥ ६ ॥


:: माता जानकी ! विश्वास करो, मैं रघुवंशमणि भगवन राम का दूत हूँ; मुझे साक्षात पवनपुत्र समझो ॥ १ ॥
नीच निशाचर रावनने जो अंडबंड बातें कहीं हैं, वे मैंने सब सुन ली हैं. वह कालकी दाढोंके बीच पड़ा हुआ है, फिर बैठा-बैठा इस प्रकार गाल क्यों न बजावेगा ॥ २ ॥
मैं रघुनाथजीकी कृपासे आज ही शत्रुका तिरस्कार कर हठपूर्वक तुम्हे ले जा सकता हूँ; किन्तु स्वामी की आज्ञा भंग करने से डरता हूँ और इससे देवताओं का काम भी बिगड़ता है ॥ ३ ॥
मात: ! तुम हृदयमें धैर्य धारण करो; दोनों भाई चार दिन पीछे ही समुद्र पर पुल बाँध, शत्रु को परास्तकर रीछ और वानरों की सेना के सहित तुमसे मिलेंगे ॥ ४ ॥
फिर हनुमानजी ने चित्रकूट की कथा और रघुनाथजी की कुशल कह उन्हें सर नवाया. इससे उन्हें स्वामी का प्रिय दास समझकर सीताजी ने अटल आशीर्वाद दिया ॥ ५ ॥
हनुमान जी के वचनामृत सुनकर सीताजी के कान, शरीर और ह्रदय तो शीतल हो गए; अब नेत्रोंको केवल भगवानके दर्शानोंकी भूख रह गयी है ॥ ६ ॥  

 

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