22.06.2013
ताते हौं बार बार देव ! द्वार परि पुकार करत ।
आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥
लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत ।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥
कौसिक, मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत ।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥
केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत ।
सनमुख तोहिं होत नाथ ! कुतरु सुफरु फरत ॥ ४ ॥
बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत ।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥
सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत ।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥
जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत ।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥
:: हे नाथ ! मैं तुम्हारे इसी स्वभाव को जानकर द्वार पर पड़ा हुआ बार-बार पुकार रहा हूँ कि हे प्रभो ! तुम दुःख, नम्रता और दीनता सुनाते ही सारे संकट हर लेते हो ॥ १ ॥
जब रावण के भय के मारे इंद्र, कुबेर आदि लोकपाल डरकर शोक से व्याकुल हो गए थे, तब हे कृपालु ! तुमने क्या सुनकर संकोच से नर शरीर धारण किया था? ॥ २ ॥
यह समझ में नहीं आता कि जो विश्वामित्र, अहिल्या और जनक चिंता की अग्नि में जले जा रहे थे, वे किस साधन से शीतल हो गए ? ॥ ३ ॥
गुह निषाद, पक्षी (जटायु, शबरी आदि स्वाभाव से ही तुम्हारे चरण-कमलों में रत नहीं थे) किन्तु हे नाथ ! तुम्हारे सामने आते ही (इन) बुरे-बुरे वृक्षों में भी अच्छे-अच्छे फल फल गए ! भाव यह कि निषाद, शबरी आदि पापी भी तुम्हारी शरणागति से तर गए ॥ ४ ॥
अपने-अपने भाई के साथ शत्रुता करने से सुग्रीव और विभीषण बड़े भारी दुःख से गले जाते थे. हे राम जी ! तुमने किस सेवा से रीझकर उन्हें भरत जी के समान मान लिया ॥ ५ ॥
हनुमान जी तुम्हारी सेवा करते-करते तुम्हारे ही समान हो गए । हे राम जी ! उन (हनुमान जी) का नाम लेते ही तुम सब पर भली-भाँति प्रसन्न हो जाते हो ॥ ६ ॥
(यह सब क्यों हुआ ? दुःख, नम्रता और दीनता के कारण ही तुमने ऐसा किया) इसलिए हे नाथ ! तुम्हारी (रीझने की) रीति न जानने के कारण ही जगत अन्यान्य साधनों में पच-पचकर मर रहा है । तुम दुखियों, नम्रों और दीनों पर प्रसन्न होते हो यह जानकर जो तुम्हारी शरण हो जाय वह तो तर ही जाता है, क्योंकि कपट छोड़कर तुम्हारी शरण में जानेसे तुलसी- जैसे जीव भी तो संसार-सागर से तर गए ॥ ७ ॥
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