Thursday, October 3, 2013

यह बिनती रघुबीर गुसाईं .. (राग धनाश्री, विनय-पत्रिका पद सं0- १०३)



02.07.2013

यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥

कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥ ३ ॥

या जगमेँ जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥ ४ ॥


::  हे रघुनाथ जी ! हे नाथ ! मेरी विनती है कि इस जीवको दुसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खता को आप हर लीजिये ॥ १ ॥
हे राम ! मैं शुभगति, सद्बुद्धि, धन-संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता. बस, मेरा तो आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक-से-अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥ २ ॥
मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस-जिस योनि में ले जाएँ, उस-उस योनिमें ही हे नाथ ! जैसे कछुआ अपने अण्डों को नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभर के लिए भी अपनी कृपा न छोड़ना ॥ ३ ॥
हे नाथ ! इस संसारमें जहां तक इस शरीरका (स्त्री-पुत्र-परिवारादिसे) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही स्थान पर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ॥ ४ ॥

!! श्रीरामदूताय नमो नमः !! 


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