Thursday, October 3, 2013

हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै .. (राग बिलावल, विनय-पत्रिका पद संo- ११९)



29.06.2013

हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै ।
देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥

भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई ।
कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥

जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥

जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै ।
चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥

ह्रषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे ।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥


::  हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, नित्य पवित्र और सुखरूप माननेका) भ्रम किस उपायसे दूर होगा? देखता है, सुनता है, सोचता है, फिर भी मेरा यह मन अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता. (और संसारको सत्य सुखरूप मानकर बार-बार विषयों में फंसता है) ॥ १ ॥
भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी साधन इस मनको शांत करनेके उपाय हैं, परन्तु मेरे हृदयसे तो यही वासना कभी नहीं जाती कि 'कोई मुझे अच्छा कहे' अथवा 'मुझे कुछ दे' (ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के साधकों के मन में भी प्राय: बड़ाई और धन-मान पाने की वासना बनी ही रहती है) ॥ २ ॥
जिस (संसाररुपी) रात में सब जीव सोते हैं उसमें केवल आपका कृपापात्र जन जागता है. किन्तु मुझे तो अपनी करनी को बिलकुल ही विपरीत देखकर बड़ा भारी भय लग रहा है ॥ ३ ॥
यद्यपि दैववश- प्रारब्धवश मनुष्यके सारे मनोरथ नष्ट हो जाते हैं, सांसारिक सुख उसके भाग्यमें (पूर्व सुकृति के अभाव से) लिखे ही नहीं गए. तथापि वह सुखोंकी इच्छामात्र कर वैसे ही दुःख पाता है जैसे कोई बिना हाथ का चित्रकार (केवल मन:कल्पित) चित्रोंसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है और भग्नमनोरथ होकर दुःख पाता है (उसी प्रकार मैं भी भजनसाधनरूप सुकृत किये बिना ही यों ही सुख चाहता हूँ)॥ ४ ॥
आपका हृषिकेश (इन्द्रियों के स्वामी) नाम सुनकर मैं आपकी बलैया लेता हूँ. मेरे मनमें आपका अत्यंत भरोसा है. तुलसीदास इन्द्रियजन्य दुःख आपको अवश्य नष्ट करना ही पड़ेगा ॥ ५ ॥ 


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