18.06.2013
राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत ।
जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥
जहँ-जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल, बियत ।
तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २ ॥
कत बिमोह लट्यो, फट्यो गगन सियत ।
तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥
:: श्रीराम-सरीखे प्रीतम से प्रेम न करके यह जीव व्यर्थ ही जीता है; अरे ! जिस (विषय-सुख) को तू सुख मान रहा है, तनिक विचार तो कर, वह सुख कितना-सा है ? ॥ १ ॥
जहां-तहां, जिस-जिस योनिमें-- पृथ्वी, पाताल और स्वर्गमें तूने जन्म लिया, तहां-तहां तूने जिस विषय-सुख की कामना की, वही प्रारब्ध के अनुसार तुझे मिला (परन्तु कहीं भी तू परम सुखी तो नहीं हुआ?) ॥ २ ॥
क्यों मोह में फंसकर फटे आकाश के सीने में तल्लीन हो रहा है ? भाव यह है कि जैसे आकाश का सीना असंभव है, वैसे ही सांसारिक विषय-भोगों में आनंद मिलना असंभव है ! इसलिए हे तुलसी ! यदि तुझे आनंद ही की इच्छा है, तो प्रभु श्री रामचंद्र जी का सुन्दर गुण-गाकार अमृत क्यों नहीं पीता (जिससे अमर होकर आनादरूप ही बन जाय) ॥ ३ ॥
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