गोस्वामी तुलसीदास रचित विनय-पत्रिका के पदों को संजोने हेतु एक प्रयास !
Wednesday, December 14, 2011
कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,
कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सोँ, बलि दीनता ।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥
दुहु ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समचीनता ।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीति की प्रबीनता ॥
एहि दरबार है गरब तेँ सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता ।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥
यहाँकी सयानप, अनायप सहस सम,
सूधौ सतधाय कहे मिटति मलीनता ।
गीध-सिला सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साईँ सो सनेह-हित-हीनता ॥
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता ।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥
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