Tuesday, December 20, 2011

काजु कहा नरतनु धरि सार्-यो


Dec.17, 2011


काजु कहा नरतनु धरि सार्-यो ।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार्-यो ॥ १

द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार्-यो ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिँ काटि निवार्-यो ॥ २

संसय-सिंधु नाम बोहि भजि निज आतमा न तार्-यो ।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिँ हार्-यो ॥ ३

देखि आनकी सहज संपदा द्वेष-अनल मन जार्-यो ।
सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार्-यो ॥ ४

प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैँ मन क्रम बिसार्-यो ।
तुलसीदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार्-यो ॥ ५

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