Wednesday, December 14, 2011

' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '


' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 17 September 2011 at 09:39


काहे न रसना, रामहि गावहिँ ?

निसदिन पर-अपवाद वृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १


नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।

ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २


काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि ।

तिनहिँ हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३


जातरुप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि ।

सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४


बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहिँ ।

तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५

No comments:

Post a Comment