गोस्वामी तुलसीदास रचित विनय-पत्रिका के पदों को संजोने हेतु एक प्रयास !
Wednesday, December 14, 2011
' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '
' काहे न रसना, रामहि गावहिँ '
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 17 September 2011 at 09:39
काहे न रसना, रामहि गावहिँ ?
निसदिन पर-अपवाद वृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २
काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि ।
तिनहिँ हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३
जातरुप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि ।
सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४
बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहिँ ।
तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५
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