Saturday, November 5, 2011

जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने








जय सगुन निर्गुन रुप अनूप भूप सिरोमने।

दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥१



अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।

जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥ २



तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।

भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥ ३



जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिध दुख ते निर्बहे।

भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥ ४



जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।

ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरि॥ ५



बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।

जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिँ भव नाथ सो समरामहे॥ ६



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनि पतिनी तरी।

नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥ ७



ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।

पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥ ८



अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।

षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥ ९



फल जुगत बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।

पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥ १०



जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीँ॥ ११



करुनातयन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीँ।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीँ॥१२

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