Saturday, November 26, 2011

'पाहि, पाहि राम ! ..' by Chandrasekhar Nair on Thursday, 15 September 2011 at 08:43



पाहि, पाहि राम ! पाहि रामभद्र, रामचंद्र !

सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौँ सरन ।

दीनबन्धु ! दीनता-दरिद्र-दाह दोष दुख
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥


जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन ।

तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आस्त्रम, बरन ॥


बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन ।

ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥


सिला, गुह गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन ।

पील उद्धरन ! सीलसिँधु ! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥

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