गोस्वामी तुलसीदास रचित विनय-पत्रिका के पदों को संजोने हेतु एक प्रयास !
Saturday, November 26, 2011
दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई
दीनबंधु-रघुराई : 'विनय पत्रिका-गोस्वामी तुलसीदास'
by Chandrasekhar Nair on Saturday, 15 January 2011 at 17:38
दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई |
सुनहूँ नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई || १
कबहूँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई |
कबहूँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहूँ दया अति सोई || २
कबहूँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहूँ भूप अभिमानी |
कबहूँ मूढ़, पंडित बिंड बरत, कबहूँ धर्मरत ज्ञानी || ३
कबहूँ देव ! जग धनमय रिपुमय कबहूँ नारिमय भासै |
संसृति-सन्निपात दारुन दुःख बिनु हरी-कृपा न नासै || ४
संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज-समुदाई |
तुलसीदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहीं जाई || ५
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment