Saturday, November 26, 2011

* जय राम रमारमणं * by Chandrasekhar Nair on Thursday, 27 January 2011 at 16:53



जय राम रमारमणं समनं | भव ताप भयाकुल पाहि जनम ||



अवधेस सुरेस रमेस बिभो | सरनागत मागत पाहि प्रभो ||



दससीस बिनासन बीस भुजा | कृत दूरी महा महि भूरी रुजा ||



रजनीचर ब्रिंद पतंग रहे | सर पावक तेज प्रचंड दहे ||



महि मंडल मंडन चारुतरम | घृत सायक चाप निषंग बरं ||



मद मोह महा ममता रजनी | तम पुंज दिवाकर तेज अनि ||



मनजात किरात निपात किये | मृग लोग कुभोग सारें हिये ||



हटि नाथ अनाथनि पाहि हरे | बिषया बन पांवर भूली परे ||



बहु रोग बियोगन्हि लोग हए | भवधान्घ्री निरादर के फल ऐ ||



भव सिन्धु अगाध परे नर ते | पद पंकज प्रेम न जे करते ||



अति दीन मलीन दुखी नितहीन | जिन्ह के पद पंकज प्रीती नहीं ||



अवलंब भवन्त कथा जिन्ह के | प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ||



नहीं राग न लोभ न मान मदा | तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ||



एही ते तव सेवक होत मुदा | मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||



करि प्रेम निरंतर नेम लिए | पद पंकज सेवत सुद्ध हिये ||



सम मानि निरादर आदरहि | सब संत सुखी बिचरंति महि ||



मुनि मानस पंकज भृंग भजे | रघुबीर महा रंधीर अजे ||



तव नाम जपामि नमामि हरि | भव रोग महागद मान अरि ||



गुन सील कृपा परमायतनं | प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ||



रघुनंद निकंदय द्वंद्वुघनं | महिपाल बिलोकय दीन जनम ||





बार बार बर मांगउ हरषि देहु श्रीरंग | पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग || १४(क)



बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास | तब प्रभु कपिन्ह दिवाय सब बिधि सुखप्रद बास || १४(ख)

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